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इक बार क्या मिले हैं किसी रोशनी से हम / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'

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इक बार क्या मिले हैं किसी रोशनी से हम
फिर माँगते चिराग़ रहे ज़िन्दगी से हम

कुछ है कि निभ रहे हैं अभी ज़िन्दगी से हम
वर्ना क़रीब मौत के तो हैं कभी से हम

क़तरे तमाम धूप के पीता रहा बदन
तब रू-ब-रू हुए हैं कहीं चँदनी से हम

जो रुख़ बदलने के लिए कोई वजह नहीं
कह दो कि पेश आ रहे हैं बेरुख़ी से हम

बस रंज है तो है यही ,हैं सब को जानते
कह सकते भी नहीं हैं मगर ये किसी से हम