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इक लड़की / राम लखारा ‘विपुल‘

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फूलों सी मुस्कानों वाली डिम्पल थे गालों में।
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में।

चेहरे पर गहरा पाउडर
काजल कारा कारा,
उस चेहरे पर क्यों न आए
फिर ये दिल बेचारा।
दो चोटी बनवाकर उस पर
रिबन लगाकर आती,
इस छोटे से दिल में भारी
अगन लगाकर जाती।

दिल की धड़कन उठती गिरती हिरणी सी चालों में
इक लड़की भायी थी हमको बचपन के सालों में।

चलने फिरने हंसने रोने
और उसके गाने में,
डांट डपट थप्पड़ गुस्से में
और मीठे ताने में।
देख उसें आंखों के संग में
जाता था मन भी तर,
सारे अच्छे गुण गहरे थे
उस रूपा के भीतर।

देख के उसकों हाथ फिराते थे सर के बालों में
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में।

‘‘खैर नहीं होगी तेरी जो
बात नहीं गर माना,
और परीक्षा में दो घंटी
बजने पर आ जाना।
ए बी सी डी वाले उत्तर
गिनती से कह दूंगी,
मेरी मदद नहीं की तो फिर
कभी नहीं बोलूंगी।‘‘

यह सब करते करते चर्चा फैली चौपालों में
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में।

चोरी-चोरी पढते पढते
उस पर नजर गिराते,
देख हमें जो लेती तो मुंह
दूजी ओर फिराते।
भोले भोले रहते थे
उसकी आंखों के आगे,
वरना इतने जालिम थे के
भूत स्वयं ही भागे।

हाय मुहब्बत ! उलझ गए हम तेरे जंजालों में
इक लड़की भायी क्या हमकों बचपन के सालों में।

यादें शेष विशेष रही हैं
हैं गीतों के गुंजन,
इतना अच्छा हुआ कि पाया
कविताओं का कुंदन।
दिन लिखने में बीत रहे है
और रातें पढ़ने में,
जीवन के सिरहाने ठहरे
कुछ किस्से गढ़ने में।

अब सपनों की नाव बहाते आंखों के नालों में
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में