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अमित
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00:15, 27 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

इक लम्हा खु़शी के लिये दुनिया सफ़र में है
मालूम नहीं दर तेरा किस रहगुजर में है

मुरझा चुकी हैं खिल के तमन्नायें नामुराद
गोया हमारा दिल भी किसी तंग दर में है

मैं भी बुझूँगा एक दिन और तू भी आफ़ताब
फिर इतनी तपिश क्यूँ तेरी तिरछी नज़र में है

फ़ित्रत है एक जैसी सितारों की जमी की
इक जल रहे हैं दूसरी जलते शहर में है

ऐ तालिबाने-फ़िरक़ापरस्ती<ref>साम्प्रदायिकता के विद्यार्थीगण</ref> कभी तो सोच
ये आग फूँक देगी जो कुछ तेरे घर में है

हम आये मदावाये-दिलआज़ुर्दः<ref>दुखी हृदय के उपचार के लिये</ref> को ’अमित’
इक वहशियाना भूक मिरे चाराग़र<ref>उपचारक, वैद्य</ref> में है

शब्दार्थ
<references/>