Last modified on 13 जून 2010, at 20:14

इक लम्हा तो पत्थर भी खूं रो जाए / परवीन शाकिर

Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:14, 13 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक लम्हा तो पत्थर भी खूं रो जाए
जब ख़्वाबों का सोना मिट्टी हो जाए

इक ऐसी बारिश हो मेरे शहर पे जो
सारे दिल और सारे दरीचे धो जाए

पहरा देते रहते हैं जब तक खदशे संदेह
कैसे रात के साथ कोई फिर सो जाए

बारिश और नमू तो उसके हाथ में हैं
मिट्टी में पर बीज तो कोई बो जाए

तीन रूतों तक माँ जिसका रास्ता देखे
वो बच्चा चौथे मौसम में खो जाए