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इज़हार / अख़्तर-उल-ईमान

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दबी हुई है मेरे लबों में कहीं पे वो आह भी जो अब तक
न शोला बन के भड़क सकी है न अश्क-ए-बेसूद<ref>निरर्थक आँसू</ref> बन के निकली
घुटी हुई है नफ़स की हद में जला दिया जो जला सकी है
न शमा बन कर पिघल सकी है न आज तक दूद<ref>धुआँ</ref> बन के निकली
दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ<ref> छवि</ref> जो दर्द बख़्शे
न मुझ पर ग़ालिब<ref>विजयी, विजयमानी</ref> ही आ सकी है न मेरा मस्जूद<ref>प्रार्थना, दुआ</ref> बन के निकली


उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
<references/>