Last modified on 29 अगस्त 2014, at 00:06

इतनी जल्दी-जल्दी / महेश उपाध्याय

बित्ते भर आधार नहीं है—
फिर कैसे संभलें
फीकी हँसी तेज़ नज़रों से
बचकर कहाँ चलें

पीठ फिरी तो हँसी
दबाकर होंठ गालियाँ देगी
कान सुनेंगे तो भीतर की
आँच और सुलगेगी

आग झपकने वाले तो—
छुट्टी ले बैठे हैं
इनके साथ हँसें तो मुश्किल
रोना बहुत कठिन
इतनी जल्दी-जल्दी कैसे
हम कपड़ें बदलें
बचकर कहाँ चलें