भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतनी ज़हमत से जो तू ढूँढ रहा है मुझमें / अदनान कफ़ील दरवेश

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 15 मई 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये ग़ज़ल किसी शब बेख़ुदी में कही गई थी और एक साथ 21 अश'आर नाज़िल हुए थे। हालाँकि ये ग़ज़ल के क़ाएदे की रु से एक छूट लेती है जिसके मुताबिक़ एक ग़ज़ल में 15 अश'आर से ज़्यादा की इजाज़त नहीं होती। नीचे जो ग़ज़ल पेश की गई है वो बह्र-ए-रमल पर मुब्नी है।

इतनी ज़हमत से जो तू ढूँढ रहा है मुझमें
पूछ ले मुझसे कि किस सम्त धरा है मुझमें

कज निगाहों से जो तू देख रहा है मुझमें
ऐसा लगता है कि ख़ुर्शीद गिरा है मुझमें

ख़ुद को किस तौर निकालेगा मेरी ज़ात से तू
जिस्म में रूह में खँजर-सा धँसा है मुझमें
 
मेरे होने से शहर तेरा पता पाएगा
ऐसा लगता है कि ख़ुश्बू-सा बसा है मुझमें

छुटपना बीत गया बीत गई मासूमी
याद आता है ख़ुदा भी तो रहा है मुझमें

अब बतौर पास यही है मेरे सरमाया-ए-ज़ीस्त
धुँधली सूरत तेरी बातों की अदा है मुझमें

ये जो शेवा है तेरा और तू ही जानता है
इतनी मुद्दत से तू क्या देख रहा है मुझमें

दिन को न चैन न रातों को सुकूँ है मुझको
मर्ज़ ये इश्क़ का है और तो क्या है मुझमें

किसके आँसू हैं ये हैं किसके बता आह-ओ-फ़ुग़ाँ
हाय वो कौन था जो रो के गया है मुझमें

हाकिम-ए-शह्र मेरी लाश से चाहे है ख़बर
कौन साए की तरह चलता रहा है मुझमें

था जहाँ दिल वहाँ पाओगे तुम अब कुछ भी नहीं
देर तक था यही जो जलता रहा है मुझमें

धज्जियाँ उड़ती हैं बारूद की बू आती है
ऐसा ही वक़्त अभी बीत रहा है मुझमें

कश्मकश में हूँ पड़ा कैसे सम्भालूँ ख़ुद को
मुझसे लड़ने को भला कौन खड़ा है मुझमें

गुम हूँ कुछ देर से बेज़ार सा गोया उसमें
एक बेचैन धुएँ सा जो उठा है मुझमें

कैफ़ियत क्या तुझे बतलाऊँ तेरे लम्स के बाद
जैसे शफ़्फ़ाफ़ गुल-ए-माह खिला है मुझमें

तू जो मिल जाए अगर मिल के बसाएँगे उसे
इक नगर प्यार का वीरान पड़ा है मुझमें

आदमी हूँ तो मगर गिल ही अलग है मेरी
चैन पड़ता नहीं इक ऐसी बला है मुझमें

नाख़ुशी है तो मेरी ज़ात के हल्क़े से निकल
बेवजह कब से यूँ ही भाग रहा है मुझमें

मेरी तह खोल तो पाएगा अभी उसके निशाँ
एक दरिया जो बहुत पहले बहा है मुझमें

सारे दर वा करो जाने का उसे रस्ता दो
एक तूफ़ान तबाही का टिका है मुझमें

ढूँढ़ने वाले तेरे मुझको न पाएँ 'दरवेश'
तेरे होने का जो इक सच्चा पता है मुझमें

लीजिए, अब यही ग़ज़ल उर्दू में पढ़िए

اتنی زحمت سے جو تو ڈھونڈھ رہا ہے مجھ میں
پوچھ لے مجھسے کہ کس سمت دھرا ہے مجھ میں

کج نگاہوں سے جو تو دیکھ رہا ہے مجھ میں
ایسا لگتا ہے کہ خورشید گرا ہے مجھ میں

خود کو کس طور نکالے گا میری ذات سے تو
جسم میں روح میں خنجر سا دھنسا ہے مجھ میں

میرے ہونے سے شہر تیرا پتا پائے گا
ایسا لگتا ہے کہ خوشبو سا بسا ہے مجھ میں

چھٹپنا بیت گیا بیت گئی معصومی
یاد آتا ہے خدا بھی تو رہا ہے مجھ میں

اب بطور پاس یہی ہے میرے سرمایۂ زیست
دھندھلی صورت تیری باتوں کی ادا ہے مجھ میں

یہ جو شیوہ ہے تیرا اور تو ہی جانتا ہے
اتنی مدّت سے تو کیا دیکھ رہا ہے مجھ میں

دن کو نہ چین نہ راتوں کو سکوں ہے مجھ کو
مرض یہ عشق کا ہے اور تو کیا ہے مجھ میں

کس کے آنسوں ہیں یہ ہیں کس کے بتا آہ و فغاں
ہائے وہ کون تھا جو رو کے گیا ہے مجھ میں

حاکم شہر میری لاش سے چاہے ہے خبر
کون ساۓ کی طرح چلتا رہا ہے مجھ میں

تھا جہاں دل وہاں پاؤگے تم اب کچھ بھی نہیں
دیر تک تھا یہی جو جلتا رہا ہے مجھ میں

دھجیاں اڑتی ہیں بارود کی بو آتی ہے
ایسا ہی وقت ابھی بیت رہا ہے مجھ میں

کشمکش میں ہوں پڑا کیسے سنبھالوں خود کو
مجھ سے لڑنے کو بھلا کون کھڑا ہے مجھ میں

گم ہوں کچھ دیر سے بیزار سا گویا اس میں
ایک بے چین دھوئیں سا جو اٹھا ہے مجھ میں

کیفیت کیا تجھے بتلاؤں تیرے لمس کے بعد
جیسے شفاف گل ماہ کھلا ہے مجھ میں

تو جو مل جائے اگر مل کے بسائیں گے اسے
اک نگر پیار کا ویران پڑا ہے مجھ میں

آدمی ہوں تو مگر گل ہی الگ ہے میری
چین پڑتا نہیں اک ایسی بلا ہے مجھ میں

ناخوشی ہے تو میری ذات کے حلقے سے نکل
بے وجہ کب سے یوں ہی بھاگ رہا ہے مجھ میں

میری تہ کھول تو پائےگا ابھی اس کے نشاں
ایک دریا جو بہت پہلے بہا ہے مجھ میں

سارے در وا کرو جانے کا اسے رستہ دو
ایک طوفان تباہی کا ٹکا ہے مجھ میں

ڈھونڈھنے والے تیرے مجھکو نہ پائیں درویشؔ
تیرے ہونے کا جو اک سچا پتا ہے مجھ میں