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इतने सजा लिए हैं व्यवधान ज़िंदगी में / डी. एम. मिश्र

इतने सजा लिए हैं व्यवधान ज़िंदगी में
मुरदे की तरह जीते श्मशान ज़िंदगी में

सिंदूर की चमक हो किलकारियों की गूँजें
कहने केा सब हैं अपने मेहमान ज़िंदगी में

रोटी मकान कपड़े कापी किताब गहने
बहलाव के हैं सारे सामान ज़िंदगी में

आँखों से झर रही है अश्क़ों के फूल बनकर
होठों पे जो कभी थी मुस्कान ज़िंदगी में

घुट- घुट के रोज़ मरना मर-मर के रोज़ जीना
इतना ही बस जिया हूँ बेजान ज़िंदगी में

ज्ञानी हो चाहे ध्यानी कोई न जानता है
किस जु़र्म में कहाँ हो चालान ज़िंदगी में।

मैला न हो कभी जो जिसको न हो बदलना
पहनेंगें एक दिन वो परिधान ज़िंदगी में