भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इनको आदत है जीने की / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:44, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह=अम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बूँदें मत गिनो पसीने की
इनको आदत है जीने की

हर गली सड़क पर
घूम रहे
शारदा, शिवा, जुम्मन काका
इन नामों का योगदान
इस महानगर ने कब आँका
हर महानगर की फितरत है
बस खून पसीना पीने की
कुछ प्लास्टिक के
थाली गिलास
है एल्यूमिनियम की बटली
हर सुबह दाल इच्छाओं की
इस बटली में फिर फिर उबली
दस छेदों वाली चादर भी
गर्मी देती पशमीने की

इस महानगर के
हाँथ पाँव
सोये रहते फुटपाथों पर
लेकिन नींदें खिलवाड़ करें
ए सी में सोये माथों पर
टूटे सपनों को जोड़ जाड़
इनको आदत है सीने की

बूँदें मत गिनो पसीने की
इनको आदत है जीने की।