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इन्द्रिय के सब भोग विविध भीषण / हनुमानप्रसाद पोद्दार

(राग वसन्त-ताल कहरवा)
 
इन्द्रियके सब भोग विविध भीषण दुःखोंकी गहरी खान।
सुखका भ्रम ही होता, इनमें सुखका तनिक न नाम-निशान॥
‘सफल मनोरथ निश्चय होगा मेरा सारा अबकी बार।
अबकी बार कटेंगे सब दुख, सुखका नहीं रहेगा पार॥’
मिथ्या सुखकी आशा यह-रखती मन नित्य अशान्ति अपार।
रहता सदा भटकता, पर पाता न कहीं सुखका आसार॥
मिलती कहीं सफलता, बढ़ता तुरत सफलताका अभिमान।
पर अन्योंका देख अधिक साफल्य, चित अति होता लान॥
इतनेमें फिर कहीं पलट जाता पासा, आता दुख-भार।
रोता, पुनः कलपता, दुखोंसे न कहीं पा सकता पार॥
नित्य नया भय, नित्य शोक, नित ही पद-पदपर आशा-भन्ग।
नित्य नयी भीषण दुःखोदधिमें उठतीं उाल तरंग॥
तो भी ममता नहीं छूटती, हटता नहीं भोग अनुराग।
बढ़ती नित्य नयी तृष्णा मन, बढ़ता भोगोंमें नव-राग॥
नित्य अशान्त, अघी जीवनका इतनेमें आ जाता अन्त।
मरता दुखी राग-ममतासे, ले सँग पाप-भार अत्यन्त॥
होता मानव-जन्म विफल, फिर विविध योनि, नरकोंके भोग।
अमित भोगने पड़ते, बरबस या प्रारध-जनित संयोग॥
इसे समझ, मानव-जीवनको मत खो‌ओ भोगोंमें भूल।
भोग-विरागी हो, भज हरि, पहुँचो भव-सागरके उस कूल॥