Last modified on 2 अक्टूबर 2016, at 08:24

इन दिनों / चिराग़ जैन

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:24, 2 अक्टूबर 2016 का अवतरण (चिराग़ जैन की कविता इन दिनों)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इन दिनों
संदर्भ निंदा कर रहे हैं
विषय की भावार्थ से-
शब्द लट्टू हो गए
भाषा पे
या फिर व्याकरण पे
बोलियों के गेसुओं में फँस गया है मर्म
कुछ अलंकारों में सीमित हो गया कवि-कर्म
जटिल सा लगने लगा है
आजकल सरलार्थ
आँख मूंदे, मुस्कुराता
मौन है भावार्थ।