Last modified on 27 जुलाई 2016, at 10:26

इन हाथों के बिना / नरेन्द्र पुण्डरीक

यह उन दिनों की बात है
जब माँ चाँद के लिए
झींगोला सिलवाने की बात सोचा करती थी
इन दिनों अक्सर मेरी
निक्कर पीछे से फटी और
बुशर्ट के बटन टूटे रहते थे,

इस मायने में मां से अधिक
मास्टर बाबा की याद आती है
जो हमारे गुरबत के दिनों में
बार-बार मेरी फटी निक्कर सिलते थे
और टाँक देते थे बुशर्ट में बटन,

जब आँखों में आगे का कुछ सुझाई नहीं देता
तब अन्धेरें में लौंकते
दिखाई देते हैं ये चेहरे
अक्षय पात्र की तरह,

जिनकी निस्पृहता कई गुना
बड़ी दिखती है पिता से
पिता की तरह दिखते हैं इनके हाथ
माँ की तरह दिखती हैं इनकी आँखें
इन आँखों और इन हाथों के बिना
अनाथ-सी दिखती है यह दुनिया।