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इमरोज / मजीद 'अमज़द'

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अबद के समुंदर की इक मौज जिस पर मिरी ज़िंदगी का कँवल तैरता है
किसी अनसुनी दाएमी रागनी की कोई तान आज़ुर्दा आवारा बर्बाद
जो दम भर को आ कर मिरी उल्झी उल्झी सी साँसों के संगीत में ढल गई है
ज़माने की फैली हुई बे-कराँ वुसअतों में ये दो चार लम्हों की मीआद
तुलू ओ ग़ुरूब-ए-माह-ओ-महर के जावेदानी तसलसुल की दो चार कड़ियाँ
ये कुछ थरथराते उजालों का रूमान ये कुछ सनसनाते अंधेरों का क़िस्सा
ये जो कुछ कि मेरे ज़माने में है और ये कुछ कि उस के ज़माने में मैं हूँ
यही मेरा हिस्सा अज़ल से अबद के ख़ज़ानों से है बस यही मेरा हिस्सा

मुझे क्या ख़बर वक़्त के देवता की हसीं रथ के पहियों तले पिस चुके हैं
मुक़द्दर के कितने खिलौने ज़मानों के हंगामे सदियों के सदा-हा हयूले
मुझे क्या तअल्ल़ुक मेरी आख़री साँस के बाद भी दोश-ए-गीती पे मचले
मह ओ साल के ला-ज़वाल आब-शार-ए-रवाँ का वो आँचल जो तारों को छू ले
मगर आह ये लम्हा-ए-मुख़्तसर जो मिरी ज़िंदगी मेरा ज़ाद-ए-सफर है
मिरे साथ है मेरे बस में है मेरी हथेली पे है ये लबा-लब प्याला
यही कुछ है ले दे के मेरे लिए इस ख़राबात-ए-शाम-ओ-सहर में यही कुछ
ये इक मोहलत-ए-कविश-ए-दर्द-ए-हस्ती ये इक फुर्सत-ए-कोशिश-ए-आह ओ नाला

ये सहबा-ए-इमरोज़ जो सुब्ह की शाहज़ादी की मस्त अँखड़ियों से टपक कर
ब-दौर-ए-हयात आ गई है ये नन्ही सी चिड़ियाँ जो छत में चहकने लगी हैं
हवा का ये झोंका जो मेरे दरीचे में तुलसी की टहनी को लरज़ा गया है
पड़ोसन के आँगन में पानी के नलके पे ये चुड़ियाँ जो छनकने लगी हैं
ये दुनिया-ए-इमरोज़ मेरी है मेरे दिल-ए-ज़ार की धड़कनों की अमीं है
ये अश्कों से शादाब दो चार सुब्हें ये आहों से मामूर दो चार शामें
इन्हीं चिलमनों से मुझे देखना है वो कुछ कि नज़रों की ज़द में नहीं है