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इलाहाबाद में निराला / बोधिसत्व

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यह समय किसी भी निराला के लिए<br>
दुर्दिन है ।<br><br>
'''13<br><br>रसूलाबाद घाट के बाद<br>निराला जैसा दिख रहे<br>उस आदमी की कोई थाह नहीं मिली<br>वह गुम गया कहीं अपनों का त्यागा अभागा<br>रह गए कुछ सवाल जिनके जवाब कौन दे<br>कौन बताएगा कि<br>वो बूढ़ा बोलता क्यों नहीं था अपने दुखों पर<br>क्यों था चुप<br>क्यों रहता था छिपकर<br>उसके अपराध क्या थे<br>क्यों जीता जाता था<br>उसके साध क्या थे<br>हालाँकि ये सारे सवाल पूछते हुए डरता हूँ<br>जब उससे नहीं पूछ पाया<br>तो अब यह सवाल क्यों उठाता हूँ<br>जैसे सब भूल गए हैं उसे<br>मैं भी क्यों नहीं भूल जाता हूँ<br>क्या ज़रूरत है अब<br>किसी बेघर बूढ़े की बात उठाने की<br>क्या ज़रूरत है उस बूढ़े को ढूंढ़ने की<br>इस देश में एक वही तो नहीं था दुत्कारा ।<br><br>'''14<br><br>रसूलाबाद घाट की सीढ़ियों पर<br>लिखा मिला उसी जगह<br>खड़िया से एक वाक्य<br>जिस पर थोड़ी दुविधा है<br>कुछ का कहना है कि यह<br>उसी पागल बूढ़े के हाथ का<br>लेखा है<br>कुछ का कहना है कि<br>यह घाट पर रहने वालों में से किसी का लिखा है<br>बकवास है<br>लिखा था वहाँ--<br>'जितना नहीं मरा था मैं<br>भूख और प्यास से<br>उससे कहीं ज़्यादा मरा था मैं<br>अपनों के उपहास से'<br><br><br>बहिला=वे गायें जो गर्भ धारण नहीं कर सकतीं
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