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इसका मैं क्या करूँ ? / रणजीत

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प्रकृति में प्रतिबिम्बित किसी परोक्ष सत्ता में मेरा विश्वास नहीं
पर मेरे भीतर बसा हुआ यह प्रकृति का अंश :
इसका मैं क्या करूँ?

हिलोरें लेने लगता है मेरे भीतर का पानी
समन्दर की अदम्य लहरों के कोलाहल में
उमड़-उमड़ उठती है मेरे रक्त में बसी हुई आग
कुहरीले सबेरों में पूरब से निकलते हुए सूरज के साथ-साथ
और जब भी देखता हूँ
चाँदनी रातों में नदी के चमकते हुए कछार
लोट-पोट हो जाना चाहती है उनमें
मेरे भीतर की पृथ्वी ।

उमग-उमग आता है मेरे अन्तस् का आकाश
सितम्बर की शामों के रंग-बिरंगे बादलचित्रों में विचरते हुए ।
जाग उठती हैं मेरे भीतर सोई हुई ख़ुशबूएँ
वासन्ती हवाओं की प्रमदा सुगंधों के संगीत में ।

और जब देखता हूँ
लोगों के एक समूह को एक साथ आन्दोलित होते हुए
एक क़तार में क़वायद करते हुए
एक लय में कुदालें चलाते हुए
तो मचल-मचल उठता है मेरा दिल
उनमें घुल-मिल जाने के लिए
जैसे बहुत देर से बिछुड़ा हुआ कोई बच्चा
अपनी माँ को देख कर
उसकी गोद में जाने को मचलता है ।

इस संसार में परिव्याप्त
किसी अज्ञात चेतना में मेरा विश्वास नहीं
पर इस संसार के एक-एक अंग के साथ
मैं जो गहरी आन्तरिक एकता महसूस करता हूँ
उसका मैं क्या करूँ ?

मेरे भीतर की इस आग और तरलता का
अपनी आँखों के आकाश और अपने हृदय की मनुष्यता का :
इनका मैं क्या करूँ ?