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इसी आशिक़ी में पैहम हुई ख़ानुमाँ-ख़राबी / 'सुहा' मुजद्ददी

इसी आशिक़ी में पैहम हुई ख़ानुमाँ-ख़राबी
दिल-ए-मुब्तला की अब तक है वही जुनूँ-मआबी

रहे सोज़-ए-इश्‍क़ लेकिन गए होश फिर न आएँ
वो तजल्लियों से पुर है तिरी चश्‍म की गुलाबी

हमें तुम अब अपनी महफिल में बुला के क्या करोगे
न वो जोश-ए-बारयाबी न वो होश-ए-कामयाबी

जो सुने तो दाद मुमकिन है मगर भला सुने क्यूँ
मेरी बे-बसी के शिकवे तिरा हुस्न-ए-ला-जवाबी

मगर इतनी सादगी भी तो बजाए ख़ुद अदा है
ब-ख़याल-ए-पर्दा-दारी ब-जमाल-ए-आफ़ताबी

मिरी आरजू निगाही ने सितम किया सिखा कर
तिरे इस शबाब-ए-रंगीं को मज़ाक-ए-बे-हिजाबी

कोई होश्‍यार क्यूँकर इसे दिल-बरी में जाने
ये नज़र कि जो ब-ज़ाहिर है शुआ-ए-नीम-ख़्वाबी

न सही ‘सुहा’ कि आलम पे हो आशकार वर्ना
मिरी ख़ाक-सारियों में है शिकवा-ए-बू-तुराबी