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इस अटूट वर्षा में / गणेश पाण्डेय

एक थका हुआ तन भीगता है
एक उदास मन भीगता है
एक सूखी हुई धरती
और एक अपलक आकाश
भीगता है
इस अटूट वर्षा में

कोई बताए
कि क्या भीगता है
और क्या नहीं भीगता है

मेरा रोम-रोम भीगता है
मेरी आँखे
मेरा वक्षस्थल
और अन्तस्तल
मेरी पृथ्वी का कण-कण
एक-एक घास
एक-एक पत्ता
पूरा का पूरा वृक्ष
एक-एक पक्षी

और
मन के
झिलमिल पानी में
मेरा चान्द भीगता है
अपने चान्द से लिपट कर
मैं भीगता हूँ ऐसे
कि पृथ्वी पर कोई और
नहीं भीगता है ।