इस घुप्प अन्धेरी-सी रात में सुरमई-सा उजाला कर गई वो,
मुद्दतों से बंद पडे़ कमरे में कोई चराग़ सा रोशन कर गई वो।
तपती दोपहर से सुलगते रिश्तों के ज़ख़्म
किसी राहग़ीर के क़दमों पर मरहम कर गई वो।
वो गुमसुम,अधमरा चुप-चुप बेजान सा जिस्म
कुछ था जादू उसमें उसे बोलता कर गई वो।
"शम्स" सुन रहा था लफ़्ज़-लफ़्ज़ सदा-ए-वक़्त की आवाज़
कोई थी कमी तुममें ही, कि ख़ुद को रुसवा कर गई वो।
रचनाकाल: 19.05.2004