भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस जलते जीवन का प्रमाद (दशम सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:21, 29 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=उषा / गुला...' के साथ नया पन्ना बनाया)
इस जलते जीवन का प्रमाद
मैं किसे सौंप दूँ, प्राणों की, यह गहन विकलता, यह विषाद?
रानी तुम हो, यह मधु रजनी
पुलकित दिगंत, सुरभित अवनी
उर में बुनती माया-ठगिनी
जाने कैसी वेदना-वाद!
यह कैसा भीषण अन्धकार!
जड़-शून्य, गहनता, दुर्निवार
मधु-मिलन-प्रहर, सुकुमार, भार,
रुँध जाती साँसें निमिष बाद
यह विश्व विरह का महासिन्धु
हम पड़े सिसकते बिंदु-बिंदु
आकांक्षाओं का स्वर्ण-इंदु
दुख में भी भरता मधुर स्वाद
इस जलते जीवन का प्रमाद
मैं किसे सौंप दूँ, प्राणों की, यह गहन विकलता, यह विषाद?