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इस तरह जीने का सामान जुटाता क्यूँ है / उत्कर्ष अग्निहोत्री

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इस तरह जीने का सामान जुटाता क्यूँ है।
ख़र्च करना ही नहीं है तो कमाता क्यूँ है।

ये घड़ी तो है प्रभाती को सुनाने की घड़ी,
इस घड़ी मीठी सी लोरी तू सुनाता क्यूँ है।

चाहता है वो कोई काम कराना मुझसे,
वरना मरने से मुझे रोज़ बचाता क्यूँ है।

कौन देखेगा इधर किसको यहाँ फ़ुरसत है,
एक कमरा है इसे इतना सजाता क्यूँ है।

वक्त के शाह की तारीफ़ की ख़ातिर ‘उत्कर्श’,
सर झुकाकर के तू ईमान गिराता क्यूँ है।