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इस तरह रखा तुमने / मालचंद तिवाड़ी

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ठंडी-ठर लाल सुर्ख नाक
खोज रही थी गर्म उष्मित देह
नर्म-धवल खरगोशों की ।
खरगोश ले रहे थे विश्राम
तुम्हारी छाती की आंच में ।

थरथराती अंगुलिया तुम्हारी
उतर रही थी भीतरी परतों तक
बाहों में आए दरख्त के ।

सहला रहा था दरख्त तुम्हें
अपनी एक-एक डाल से
सहसा छोड़ दी जड़े
गूंगी चित्कार के साथ ही
यश है तुम्हें
तुमने नहीं लगने दिया धरती के
एक भी पात बेचारे दरख्त का ।

सहेज ली सम्पूर्ण धरा
सहेज लिए साथ ही
तुमने तुम्हारे किसी गहरे पानी में-
सम्पूर्ण दरख्त ही धरती के ।
इस तरह रखा तुमने
हमेशा अक्षत सृष्टि को ।

अनुवादः नीरज दइया