भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस नाजुक समय के मोङ पर / विजय सिंह नाहटा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:00, 27 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय सिंह नाहटा |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस नाज़ुक समय के मोङ पर
जब बतौर बहस-मुबाहिसे
अवशेष न रहे कोई मानीखेज मुद्दा
तब,
विवेक भी आँख मिचौनी करता छुपता फिरता भीतर बाहर
अस्तित्व के जर्जर कवच में, और,
उत्सव ना जाने चुपचाप विदा ले लेता जीवन से
ज्यों, नींद के क्षितिज से सपने-सा ओझल
जब, फूहड़ क़िस्म के प्रायोजित महाभोज बन जाते
उबाऊ चलताऊ औ' बाजारू क़िस्म के सर्व सुलभ लोकरंजन
और, वैभव के मतिविहीन, निस्पंद से प्रदर्शन में सिमट आता जीवन सौन्दर्य
नुकीले पाखंड की जड़ें मज़बूत गहरी हो जायें चहुँओर
कि मोहक लगे ठोस धातु शिल्प-सा आकर्षक
तब,
धर्म हो जाता मूल्य विहीन बाज़ार में प्रचलन रहित मुद्रा की तलह
तब एक चमत्कारी विस्फोट के आत्मघाती आशावाद में
जादुई ताबीज़ में मढ दिया जाता आध्यात्म
ठहरो! उठो!
गहरी तंद्रा का कवच तोड़ तनिक आओ बाहर
क्या छोड़ा जा सकता जीवन
दंभी औ' दूषित व्याख्याकार के हवाले
यूँ ही अकस्मात, प्रयोजन विहीन?
जोड़तोड़ के शिल्प से वरदान विभूषित
तथाकथित कामयाब लोगों की अंतहीन भीड़ के सामने
यदि, न हुए मुठभेड़ में शामिल, तुम
क्या यह नहीं होगी मौन, अघोषित अनुज्ञा
बर्बर लूट के हक़ में
और, अराजक भगदङ?
पलायन बीच समर से?