Last modified on 15 सितम्बर 2008, at 09:55

इस पूरी संरचना से बाहर / गिरिराज किराडू

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:55, 15 सितम्बर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हमने उन्हें आकाश में ठीक हमारे सिर पर मंडराते देखा था।


जैसे पृथ्वी पर घूमने वाला नेपाली एक महीने में एक बार दस रुपये लेने आता है वैसे ही

ये आकाशीय चौकीदार भी कभी चौकीदारी लेने आयेंगे ऐसा सोचकर अनजाने ही हम

उनकी राह देखने लगेंगे और उनकी राह देखते हुए उन्हीं पक्षियों के हाथों पकड़ लिए जायेंगे

यह हमें मालूम नही था।


जिन्हें हमने ठीक अपने सिर पर मंडराते देखा था वे कोई पैराशूट खोलकर नीचे गिरते हुए

उन्हीं घोसलों से टकरायेंगे ऐसा सोचकर हम हवा में ताबड़तोड़ हो रही फायरिंग के नीचे से

होकर पृथ्वी पर गिर रहे एक रूपक और पृथ्वी के बीच अपनी हथेली ऐसे रख देंगे जैसे सुबह

और शाम के बीच एक दोपहर यह हमें मालूम नहीं था।


प्रेम खुले में बनाया हुआ घोंसला है


मौसम,आकाशीय चौकीदारों,जानवरों,आत्माओं और उल्काओं की मार झेलने के लिए

खुले में तैनात जब इस घोंसले पर आकाश गिरता है पैराशूट पहने या बिना पहने तो

यह धरती पर बिखर जाता है और इसके तिनकों में उलझकर आया आकाश भी यूं

तिनकों की तरह बिखरेगा,रूपक देखते हुए यह हमें मालूम नहीं था।


अगर कहीं आपको वे दिख जाए तो हमारे सिर पर मंडरते हैं तो अब आपकी जेब में दस रुपये तो होंगे न?


इस पूरी संरचना से

बाहर

यहां कहता हूं

मेरा अन्तिम संस्कार आकाश में करना।


(प्रथम प्रकाशनः बहुवचन,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय,वर्धा)