भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस राह-ए-मोहब्बत में तो आज़ार मिले हैं / हकीम 'नासिर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस राह-ए-मोहब्बत में तो आज़ार मिले हैं
फूलों की तमन्ना थी मगर ख़ार मिले है

अनमोल जो इंसाँ था वो कौड़ीं में बिका है
दुनिया के कई ऐसे भी बाज़ार मिल है

जिस ने भी मुझे देखा है पत्थर से नवाजा
वो कौन हैं फूलों के जिन्हें हार मिले हैं

मालिक ये दिया आज हवाओं से बचाना
मौसम है अजब आँधी के आसार मिले हैं

दुनिया में फ़क़त एक ज़ुलेखा ही नहीं थी
हर यूसुफ-ए-सानी के ख़रीदार मिले हैं

अब उन के न मिलने की शिकायत का गिला है
हम जब भी मिले ख़ुद से तो बेज़ार मिले हैं

‘नासिर’ ये तमन्ना थी मोहब्बत से मिलेंगे
वो जब भी मिले बर-सर-ए-पैकार मिले हैं