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इस शहर में / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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पत्थरों के

इस शहर में

मैं जब से आ गया हूँ

बहुत गहरी

चोट मन पर

और तन पर खा गया हूँ ।


अमराई को न

भूल पाया

न कोयल की ॠचाएँ,

हृदय से

लिपटी हुई हैं

भोर की शीतल हवाएँ ।


बीता हुआ

हर एक पल

याद में मैं पा गया हूँ ।


शहर लिपटा

है धुएँ में

भीड़ में

सब हैं अकेले,

स्वार्थ की है

धूप गहरी

कपट के हैं

क्रूर मेले ।


बैठकर

सुनसान घर में

दर्द मैं सहला गया हूँ ।