इस सोच में डूबा हूँ मैं जाऊँ कि न जाऊँ।
जो बीत चुका है उसे आवाज़ लगाऊँ ।।
ये सोच के मैंने कभी फ़रियाद नहीं की
फूलों ने जो बख़्शे हैं उन्हें ज़ख़्म बताऊँ ।
घनघोर अन्धेरे में चमक है तो इसी की
इस दर्द की किन्दील को मैं कैसे बुझाऊँ ।
मेरी ही खता है मेरा दिल है तेरे बस में
दिल पर मेरा बस हो तो तेरे पास न आऊँ ।
मैं आज अकेला नहीं मेला सा लगा है
कोई नहीं सुनता मेरी मैं किसको सुनाऊँ ।
जब उसने पुकारा तो मैं मसरूफ़ बहुत था
अब उम्र के सैलाब को किस मुँह से बुलाऊँ ।
इस दिल ने मुझे सोज़ कहीं का नहीं छोड़ा
दुखता है तो कम्बख़्त को कुछ और दुखाऊँ ।।