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इस सोच में डूबा हूँ मैं जाऊँ कि न जाऊँ / कांतिमोहन 'सोज़'

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इस सोच में डूबा हूँ मैं जाऊँ कि न जाऊँ।
जो बीत चुका है उसे आवाज़ लगाऊँ ।।

ये सोच के मैंने कभी फ़रियाद नहीं की
फूलों ने जो बख़्शे हैं उन्हें ज़ख़्म बताऊँ ।

घनघोर अन्धेरे में चमक है तो इसी की
इस दर्द की किन्दील को मैं कैसे बुझाऊँ ।

मेरी ही खता है मेरा दिल है तेरे बस में
दिल पर मेरा बस हो तो तेरे पास न आऊँ ।

मैं आज अकेला नहीं मेला सा लगा है
कोई नहीं सुनता मेरी मैं किसको सुनाऊँ ।

जब उसने पुकारा तो मैं मसरूफ़ बहुत था
अब उम्र के सैलाब को किस मुँह से बुलाऊँ ।

इस दिल ने मुझे सोज़ कहीं का नहीं छोड़ा
दुखता है तो कम्बख़्त को कुछ और दुखाऊँ ।।