http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%AF%E0%A4%B6_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8&feed=atom&action=historyईश्वर का यश / मुंशी रहमान खान - अवतरण इतिहास2024-03-29T13:24:12Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%AF%E0%A4%B6_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=181535&oldid=prevSharda suman: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुंशी रहमान खान |अनुवादक= |संग्रह= ...' के साथ नया पन्ना बनाया2014-08-12T12:45:02Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुंशी रहमान खान |अनुवादक= |संग्रह= ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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|रचनाकार=मुंशी रहमान खान<br />
|अनुवादक=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{KKCatDoha}}<br />
<poem><br />
(यहाँ से दोहा अधर तक होठों के सिरे से सुई लगाकर कहें)<br />
<br />
'''चौताल अधर'''<br />
<br />
गुरु चरनन सिर नाई, ईश गुण गाई।। टेक<br />
नारि अहिल्या रही अध लीन्हें सिला शरीर धराई।<br />
धूरि चरन रघुनाथ की छूकर हो, गई स्वर्ग हर्षाई।।<br />
ईश गुण गाई।।1<br />
<br />
गणिका रही अधिक अध छाई नहिं कछु राह लखाई।<br />
नीक सीख कीर को दीन्हीं हो, जाकर स्वर्ग अघाई।।<br />
ईश गुण गाई।।2<br />
<br />
रह्मो किरातन के संग तस्कर हनैं राह जन जाई।<br />
सात ऋषी दुई अक्षर दीन्हे हो, गयो स्वर्ग लवलाई।।<br />
ईश गुण गाई।।3<br />
<br />
नहिं रसना गुण गाऊँ तोरे शारद शेष थकाई।<br />
नीक सीख 'खान' यह देवैं हो, रटहु हृदय रघुराई।।<br />
ईश गुण गाई।।4<br />
<br />
दोहा अधर - निराकार करतार इक जिन यह रचा जहाँन।<br />
नहीं जना उसे काहु न नहीं, नारि संतान।। 5<br />
<br />
(यहाँ तक सुई लगावै)<br />
<br />
<br />
<br />
(इस ईश्वरीय यश को दोनों होठों के सिरे से सुई लगाकर दोहा अधर तक सज्जन जन उच्चारण करें।)<br />
<br />
'''अधर'''<br />
<br />
ईश्वर एक युगल नहिं कोई, ईश्वर कार्य छिनक जग होई।। 1<br />
<br />
दंड एक वह रचै संसारा, जो चाहै इक कला संहारा।। 2<br />
<br />
है नहिं देह गेह ईश्वर के, रहत सत्य उर है नर जी के।। 3<br />
<br />
करै कार्य नहिं हाथ लगावै, हैं नहिं चरण जगत नित धावै।। 4<br />
<br />
नहिं लोचन देखै संसारा, श्रवण नहीं सुनि नाद उचारा।। 5<br />
<br />
घ्राण नहीं जग लेत सुगंधा, तजै ईश अस है नर अंधा।। 6<br />
<br />
शक्ति तोरि जग रही दिखाई, निराकार वह नहीं लखाई।। 7<br />
<br />
नहिं कछु जोर तोर गुण गाऊँ, चरण लाग निज शीश झुकाऊँ।। 8<br />
<br />
<br />
'''दोहा अधर'''<br />
<br />
करता धरता जगत का, धरती रचा अकाश।<br />
तज कर ऐसे ईश के, नर जग रहत निरोश।। 1<br />
<br />
<br />
'''छंद अधर'''<br />
<br />
ईश्वर जगदीश है दोष से छत्तीस है,<br />
दासन का शीश है दीनानिधान है।<br />
दुष्ट का संहार है अहंकार का छार है,<br />
सेवका उद्धार है करुणानिधान है।।<br />
क्रोधी को काल है निंदक को जाल है,<br />
ज्ञानी को ढाल है दानी को दान है।<br />
सच्चा जो दास है जग से निराश है,<br />
ईश्वर की आस है स्वर्गहि ठिकान है।।<br />
<br />
<br />
'''दोहा अधर'''<br />
<br />
कुरदत है अल्लाह की जल से हैं इंसान।<br />
देहु तलाक गुनाह को सुख से रहो जहाँन।। 1<br />
<br />
(यहाँ तक सुई लगावै)<br />
</poem></div>Sharda suman