Last modified on 20 अक्टूबर 2017, at 19:03

ईश्वर ने भी स्त्रियों के चारों ओर छल बुना है / राकेश पाठक

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:03, 20 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पुरुष स्त्री की काया में अंतरण चाहता हूँ
और स्त्री उस कायिक चरित्र से निर्वासन
इसी अंतरण और निर्वासन के द्वंद में छल दी जाती है स्त्री

स्त्री अपनी काया को निसोत्सर्ग करती है रोज़
राह चलते पुरुषों की नज़रों में?
राह चलते बटमारों की आँखों से?
ऑफिस की दीवारों में नज़र टिकाए भले मानुषों से?

पुरुष हर भाषा मे स्त्री के साथ छल रचता है
प्यार भी उसी छल का प्रपंच है

रोते हुए भी पुरुष, स्त्री की आँखों में छल से देखता है
कपट की भाषा
मर्दों की हर ज़ुबान पर वैसे ही मौजूद है
जैसे स्त्री की आँखों में आँसू
हम पुरुषों ने छल से स्त्रियों के कई नाम दिए
अपनी तुष्टि के लिए-
देवदासी, गणिका, वेश्या
बंधन के लिए-
माँ, बहन, बेटी
दुत्कारने के लिए-
कुलटा, रंडी, राड़!

कितने छली है पुरुष
ये माँग में भरा गया वह सिंदूर
जिह्वा पर लिखे गए पुरुष का बीजमंत्र
सीने पर लटका दिया गया मंगलसूत्र
सब छद्म है कपट रचने का,
एक पुरुष, एक पति, एक पिता, एक भाई का दिया हुआ वचन भी छल ही है

स्त्री हर वक्त छल के इर्द-गिर्द बीथोवेन-सा गाती है

स्त्री कभी स्वांग नहीं करती
स्त्री कभी छल भी नहीं करती
पर
ईश्वर ने भी स्त्रियों के चारों ओर छल बुना है.