भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ई अदरा कें मेघ ने मानत / नरेश कुमार विकल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:07, 22 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश कुमार विकल |संग्रह=अरिपन / नर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आइ चतुर्थीक राति मे कनियाँ
कानि रहलि छै कोहबर मे।
भरल सीमन्त सिनुर सुहागक
बनल अभागलि कोहबर मे।

फूटि गेलै आहिबाक पातिल
रूसि गेलाह पहु हमर किऐ ?
कोना जुड़ाएत दग्धल छाती ?
सोचि रहलि छी कोहबर मे।

हमरे आँखिक छाहरि तर मे
रभसय सौतिन कें संग मे
अप्पन सप्पत डाह ने होइयै
देखि कऽ अनका कोहबर मे।

सऽख-सेहन्ता सभ कें होइछै
हमरो केओ श्रृंगार देखय
आहार देखय, व्यवहार देखय
आ विचार देखय केओ कोहबर मे।

टिकुली नहि साटल बिजुरी थिक
चमकल सबहक आँगन मे
आब ने सीता चुप भऽ बैसतीह
ककरो बुत्त कोहबर मे।

टेभीक घघरा उठल गगन र
घेरि लेलक घनघोर घटा
ई अदरा कें मेघ ने मानत
रहत बरसिकऽ कोहबर मे।