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उजाड़ / गीताश्री

सम्भावनाएँ बोती हथेलियाँ
अब उगाती हैं अन्धेरे
चारों ओर रेंगते हैं सन्देह के काले साए
जब गँवा चुकी सारा वैभव
भवन उजाड़ है
हारे हुए जुआरियों सी निहारती हूँ शून्य
बाँहें जाने कब हुईं निरस्त्र
तीर तूणीर विदा हुए
एक छोटी सुई भी डराती है
जो डूब कर आती है शक के नीले ज़हर में

वह सारी भीड़ विदा हो चुकी
जिन्हें लहकते सूरज से ताप खींचने की लत है
अन्दर टिमटिमाती रोशनी की लौ
उनके किसी काम की नहीं
मैं खोजती हूँ एक माचिस की डिबिया

जीवन अपनी ही क़ैद में
हर दिन सलाखों को थोड़ा और मज़बूत करता जाता है
ज़ंजीरें हर रोज़
थोड़ी और भारी हो आती हैं

हर पल एक चट्टान बेआवाज़ टूटती है
थोड़ा और