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उजियारे के जीवन में / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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'ना पैरों के नीचे धरती । सिर पर भी आकाश नहीं । । पलभर मुड़कर देखे पीछे। इतना तक अवकाश नहीं ॥ मज़्में वालों ने पी डाला सारा नीर सरोवर का , हुआ बुरा अंजाम यहाँ दुनिया की सभी धरोहर का । बाकी तो बच पाई तलछट । बुझती जिससे प्यास नहीं ॥ अंधकूप में डूब गए हैं अनगिन पथिक कारवाँ के , देखो कैसे खिसक गए हैं रहबर हमें यहाँ लाके । बेगानों की इस बस्ती में । कोई किसी का खास नहीं ॥ बूँद-बूँद विष पीलें जग का सोचा था हमने मन में बनी तभी प्यासी दीवारें झुलसे बंजर जीवन में । इसीलिए अपने ऊपर भी । हो पाता विश्वास नहीं ॥ पाप –पुण्य की परिभाषाएँ सड़कों पर रोज़ बदलती है , दीवारों से डर लगता जब मुँह से बात निकलती है । अपने और परायों तक का । हो पाता विश्वास नहीं ॥ किसी आँख से बहते आँसू जब ले लिए हथेली पर आरोप लगाने वालों को मिला यही अच्छा अवसर । धूल –शूल के सिवा और कुछ । छूटा अपने पास नहीं । । मन में हम अफ़सोस करें क्यों बीती कड़वी बातों का उजियारे के जीवन में है हाथ बहुत ही रातों का । हमको धारा में बहने का । हो पाया अभ्यास नहीं । ।