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|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं <br>मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं<br><br>
मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए सर उठाओ तो जाएँ<br> सही, आँख मिलाओ तो सही फिर ये एहसान के हम छोड़ नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के जाते माते भी नहीं<br><br>
सर उठाओ क्या कहा फिर तो सही, आँख मिलाओ तो सही <br>कहो; हम नहीं सुनते तेरी नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं<br><br>
क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी <br>ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते सामने आते भी नहीं<br><br>
ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं <br>मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे साफ़ छुपते तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं सामने आते भी नहीं<br><br>
मुझसे लाग़िर तेरी आँखों देखते ही मुझे महफ़िल में खटकते तो रहे <br>ये इरशाद हुआ तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं <br><br>
देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ <br>हो चुका तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ होंकौन बैठा है इसे लोग उठाते जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं<br><br>
हो चुका तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों<br>जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं<br><br> ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो<br>
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं
</poem>
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