भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी / गँग

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:55, 16 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी ,
नेसुक देखाय मुख दूनो दुख दै गई ।
मुरि मुसकाय अब नेकु ना नजरि जोरै ,
चेटक सो डारि उर औरै बीज बै गई ।
कहै कवि गंग ऎसी देखी अनदेखी भली ,
पेखै न नजरि में बिहाल बाल कै गई ।
गाँसी ऎसी आँखिन सों आँसी आँसी कियो तन ,
फाँसी ऎसी लटनि लपेटि मन लै गई ।

गँग का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।