भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे / अलेक्सान्दर पूश्किन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:31, 26 दिसम्बर 2009 का अवतरण ("उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे / अलेक्सान्दर पूश्किन" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefi)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: अलेक्सान्दर पूश्किन  » संग्रह: धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस-उजाला
»  उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे

उड़ते हुए जलद, दल-बादल बिखरे जाते सारे
ओ संतप्त, उदास सितारे, ओ संध्या के तारे!
रजत-रुपहले मैदानों को किरण तुम्हारी करती
काले शृंगों में, खाड़ी में रंग रुपहला भरती।
ऊँचे नभ में तेरी मद्धिम लौ है मुझे सुहाती
सोए हुए हृदय में मेरे चिन्तन, भाव जगाती,
याद उदय-क्षण मुझे तुम्हारा, नभ दीपक पहचाने
उस धरती पर जहाँ हृदय बस, सुख-सुषमा ही जाने,
जहाँ घाटियों में अति सुन्दर, सुघड़ चिनार खड़े हैं
जहाँ ऊँघती कोमल मेहंदी, ऊँचे सरो बड़े हैं
जहाँ दुपहरी में लहरों का मन्द, मधुर कोलाहल
वहीं, कभी पर्वत पर अपना हृदय लिए अति आकुल,
भारी मन से मैं सागर के ऊपर रहा टहलता
नीचे, घाटी के प्रकाश को तम जब रहा निगलता,
तुम्हें ढूँढ़ने को उस तम में युवती दृष्टि घुमाए
तुम उसके हमनाम यही वह सखियों को बतलाए।


रचनाकाल : 1820