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उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ / शकेब जलाली

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उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ,
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी ।

जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पर सब बिखेर दिया,
फिर अपने आप तबियत मिरी संभलने लगी ।

जहाँ शज़र पे लगा था तबर का ज़ख़्म 'शकेब'
वहीँ पे देख ले कोंपल नई निकलने लगी ।