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उधर आकाश था ऊँचा, इधर गहरा समंदर था / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
उधर आकाश था ऊँचा, इधर गहरा समंदर था
हमारे पास टकराने को उनसे एक ही सर था
अँधेरे जंगलों को छोड़कर जुगनू कहाँ जाते
ख़ुदा की थी यही मर्ज़ी, यही उनका मुक़द्दर था
दबंगों ने ग़रीबों की जो बस्ती फूँक दी थी कल
उसी के दरमियाँ मेरा भी इक छोटा सा छप्पर था
मुझे इसके सिवा कुछ भी नहीं मालूम जज साहब
कमीना था कि अच्छा था मगर मेरा वो रहबर था
न जाने किस ग़लत-फ़हमी में अब तक जी रहा था मैं
जिसे भगवान समझा था वो मामूली सा पत्थर था
ज़हर पीकर ज़माने को मगर दिखला दिया मैंने
मेरी जाँ क्या करूँ मैं फ़र्ज़ मेरा तुमसे बढ़कर था