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उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ / ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
क्यूँ न तुझे भी आईना तज्वीज़ करूँ

हर्फ़-ए-न-गुफ़्ता बीच में हाइल है कब से
बाब-ए-सुख़न में ख़ामोशी तक़रीज़ करूँ

फ़ुर्सत-ए-शब में तेरा ध्यान सा आ जाता है
कुंज-ए-चमन क्यूँकर घर की दहलीज़ करूँ

आँखें मुँद जाएँगी मंज़र बुझने तक
इस अस्ना में ख़्वाब किसे तफ़्वीज़ करूँ