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उपन्यास पढ़ते पढ़ते / राम लखारा ‘विपुल‘

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तपती दोपहरी से चलते पग ठिठके इक शाम पर
उपन्यास पढते पढते हम ठहरे ऐसे नाम पर।

नाम कि जिसके उच्चारण में
वीणा के स्वर बहते थे
नाम कि जिसके वर्ण वर्ण में
प्राण हमारे रहते थे
नाम कि जो अंबर धरती को
हमसे जोड़े रखता था
नाम कि जिसको जीवन का हम
सत्य आखिरी कहते थे

नाम वही जो चला गया है हाथ पराया थामकर
उपन्यास पढते पढते हम ठहरे ऐसे नाम पर।

कितने आंसू रखने पड़ते
आंखों के तहखाने में
कितनी धूप सहन करते है
दो बादल बरसाने में
हर इक मुखड़े में अंतस की
आह ढूंढनी पड़ती है
तब जाकर हंसता आता है
कोई गीत जमाने में

जिसके गीत उकेरे है हिंदी के अक्षरधाम पर
उपन्यास पढते पढते हम ठहरे ऐसे नाम पर।