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उपमान हो तुम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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77
हर दिन आती रात है, हर दिन आती भोर।
दिप-दिप आँसू पोंछ ले मत कर गीली कोर।
78
ऊपर वाले ने लिखे, सब दुख अपने नाम।
उसे पता भाया नहीं, हमें कभी आराम।।
79
पार किए सागर बड़े, लाँघे रोज़ पहाड़।
हटा सके अब तक कहाँ, काँटों की वह बाड़।
80
भूल गए हैं हम सभी , कहते जिसे थकान।
मन भी टूटा काँच-सा, इसका भी अनुमान।
81
तेरे जीवन में खुशी, रहे सदा आबाद ।
दूरी कितनी भी सही, बना रहे संवाद ।
82
चुम्बन से पलकें सजें,चमके ऊँचा भाल।
अधरों का जो रस मिले, हार मान ले काल।
83
इन हथेलियों में छुपा, कर्मठता का सार।
रस प्लावित अंतर हुआ, चूम इन्हें हर बार।
84
खुशबू फूलों की रची ,हर करतल में आज
इन हाथों को चूमकर, मिला प्यार का राज।
85
अधरों से था लिख दिया,करतल पर जब प्यार।
सरस आज तक प्राण है, पाकर वह उपहार।
86
चूम चूमकर मैं लिखूँ,इन हाथों में प्रीत।
रेखाएँ दमके सभी पाकरके मनमीत।
87
फिर से आकरके मिलो, जैसे नीर तरंग।
उर की तृष्णा भी मिटे, भीग उठें सब अंग।
88
कहाँ लगे तुम ढूँढने, इन हाथों की रेख।
कर्मठ हाथों ने लिखे, चट्टानों पर लेख।
89
पत्थर तोड़े बिन थके, तब पी पाए नीर।
इसलिए तो जानते,क्या होती है पीर।
90
आएँ लाखों आँधियाँ, घिर आएँ तूफान।
रुकना सीखा हैं नहीं,इतना लो तुम जान।
91
सौरभ उमड़े आँगना,पथ में हो उजियार।
आशीषों का छत्र हो,तेरे सिर हर बार।
92
तेरे सुख में साँझ है,तेरे सुख में भोर।
पीर उठे तेरे हिये दुखते मन के छोर।
93
पता नहीं किस यक्ष ने, दिया हमें अभिशाप।
तुम्हें पुकारूँ मैं नहीं, मुझको भी न आप।।
94
रूप तुम्हारा देखके, जड़ चेतन हैरान।
उतर स्वर्ग से आ गई, बनकरके उपमान।।