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उपालम्भ / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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मैं अकेला था, मिली तो प्यार मन में बो गयी क्यों?
तुम कली बनकर खिली थी, हार बनकर खो गयी क्यों?

मोम की प्रतिमे! बता क्यों संगमर्मर बन गयी हो?
दे किसी को तट, किसी के पास निर्झर बन गयी हो?
तारिके मेरे नयन की, झाँकती हो क्या गगन से?
धूल का मजनू तड़पता जा रहा तेरी जलन से?

तुम लहर बनकर मिली थी ज्वार बनकर सो गयी क्यों?
मैं अकेला था, मिली तो प्यार मन में बो गयी क्यों?

लालसा देकर मिलन की, स्वयं ही ठुकरा दिया क्यों?
मीत कहकर प्रीत के हर गीत को बिसरा दिया क्यों?
याद है तुमको मिलन की साँझ का वह एक मधु क्षण-
प्यास से कम्पित अधर की बेबशी, वे मौन चुम्बन?

बाँह जब बढ़ने लगी तो तुम विदा ही हो गयी क्यों?
मैं अकेला था, मिली तो प्यार मन में बो गयी क्यों?

सुप्त यौवन था कि उकसाकर लगायी आग तुमने,
मन तपोवन था कि गाया मेनका का राग तुमने,
छा गयी तस्वीर बनकर जब खुली मेरी पलक थी,
क्या पता था, वह किसी के प्यार की अन्तिम झलक थी!

प्यार के रंगीन सपनों को न जाने धो गयी क्यों?
मैं अकेला था, मिली तो प्यार मन में बो गयी क्यों?

बन गयीं पत्थर लकीरें, रूप की रेखा पुरानी,
धूल में मीना? सिसकती फूल की कोमल जवानी!
पाँव तो अभ्यस्त थे ही, आग सीने में दिया क्यों?
मधुर स्नेहासव कभी इस नीर पीने में दिया क्यों?

जब नशा आया पिलाते, तुम दृगों से रो गयी क्यों?
मैं अकेला था, मिली तो प्यार मन में बो गयी क्यों?

भूल जाने को किया यदि प्यार तुमने, तो बता दो!
छीन लेने को दिया उपहार तुमने, तो बता दो!
प्रणय का अभिनय? न जाना यह कभी बलिदान होगा,
यह मिलन का पथ, युगों के दर्द का आह्वान होगा,

सेज पर तुम से मिला फिर द्वार पर आ खो गयी क्यों?
मैं अकेला था, मिली तो प्यार मन में बो गयी क्यों?