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उम्मीद-ए-वफ़ा / विनय सिद्धार्थ
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मानता हूँ जमाना खूँखार बहुत है।
पर ज़िन्दगी भी अपनी लाचार बहुत है।
तीर तमंचा न तलवार चाहिए,
जान लेने के लिए दो लफ्जों का वार बहुत है।
देखा है हँसते हुए मिरी बेबसी पर उनको,
जो कहते थे हमें तुमसे प्यार बहुत है।
किससे करें 'विनय' उम्मीद-ए-वफ़ा,
यार ही जब अपने गद्दार बहुत हैं।