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उम्र का बैनामा / संजय शेफर्ड

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वस्तुतः दिन का वह अन्तिम पहर होता है
जब मैं समेटता हूं
दिन भर की भागदौड़, कहा- सुनी
अपने पैरों पर लगी मिट्टी, माथे की धूल
हवा, पानी, धूप
इस पूर्वाभास के साथ की रात आने को है
मुठ्ठी भर उजालों के साथ
पर रात कहां आती है
आता है तो सिर्फ और सिर्फ
चुभता हुआ अंधेरा
जिसको बाहों में समेटना
छातियों के नीचे दबा लेना आसान नहीं
पलकों में भर लेना महज एक मात्र विकल्प है
ऐसे में समेटना भी तो
क्या ? कितना ? किस हद तक ? एक सवाल है
बोझिल होती पलकें
उसी सवाल के बोझ से परस्पर दबी जाती हैं
आंखों के नीचे बना लेती हैं
हल्के काले रंग का एक गढ्ढ़ा
जिसमें किस्तवार जमा होती रहती है उम्र
और जब हिसाब लगाता हूं
तो बचता कुछ भी नहीं
उस दिन भर की भागदौड़, कहा- सुनी
अपने पैरों पर लगी मिट्टी, माथे की धूल
हवा, पानी, धूप के आलावा
ऐसे में पूर्वाभासों का मारना
लगभग तय सा ही होता है
पर वह मरता नहीं, महज़ ख़त्म हो जाता है
उम्र की कोई खेतौनी- खाता बही नहीं होती
ऐसे में उम्र का बैनामा करा हिसाब- किताब रखना
महज़ एक ज़िद के अलावा भला और क्या हो सकता है ?