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उम्र तो है गुड़िया से खेलें, नज़र टिकी गुब्बारों पर / वशिष्ठ अनूप
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उम्र तो है गुड़िया से खेलें, नज़र टिकी गुब्बारों पर,
नंगे पाँव चले हैं बच्चे, दहक रहे अंगारों पर।
सर पर भारी बोझ लिये बैदेही पैदल भटक रही,
टूटी चप्पल, दूर है मंज़िल, चलना है तलवारों पर।
स्वाभिमान से जो जीते थे, आज भिखारी जैसे हैं,
संकट में भी क्रूर सियासत, थू ढोंगी हत्यारों पर।
कई दिनों से भूखी-प्यासी माँ की छाती सूख गई,
नाज़ुक बच्चा हुआ अधमरा, लानत है मक्कारों पर।
खाना नहीं मिला पर लाठी अक्सर ही खा लेते हैं,
साँसें टँगी हुई हैं इनकी, मंज़िल की मीनारों पर।
सब कुछ खोकर सड़क किनारे भी रुकने को जगह नहीं,
नेताओं की हँसती फोटो चिपकी है दीवारों पर।
रिक्शा ठेला साइकिल पैदल, गिरते-पड़ते निकल पड़े,
अकथ दर्द की कविता कैसे लिख दूँ इन बंजारों पर।