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उर–कम्पन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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26
ज्ञान-उजेरा
ढक लिया हाथों से
हे क्षुद्र साहित्यकार?
'मैं-मै' का चढ़ा
जीवन में बुखार
इसे अब उतार।
27
उर–कम्पन
निर्मल ज्यों दर्पन
भावों–भरी मिठास,
सुख-दु: ख-से
सदा साथ रहेंगे
बनके परछाई।
28
मन-सौरभ
करता सुरभित
प्राणों की अँगड़ाई,
भाव-डोर से
छाया-सी बँधी तुम
जीवन–अमरा॥
29
बोल तुम्हारे
बने शीतल छाया
छतनार नीम की,
जीवन खिला
शब्दों का मधुरिम
स्पर्श मिला मन को।
30
छलती छाया
सगे-सम्बन्धी-जैसे
जब दुर्दिन आते,
मिलता कोई
हमको मीत साँचा
जो मन को भी बाँचे