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उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं / गौतम राजरिशी

उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं
बटोही रास्ते खो कर भी लें बलाएँ हैं

धड़क उठा जो ये दिल उनके देखने भर से
कहो तो इसमें भला क्या मेरी ख़ताएँ हैं

खुला है भेद सियासत का जब से, तो जाना
गुज़ारिशों में छुपी कैसी इल्तज़ाएँ हैं

उधर से आये हो, कुछ ज़िक्र उनका भी तो करो
सुना है, उनके ही दम से वहाँ फ़िज़ाएँ हैं

तेरे ही नाम का अब आसरा है एक मेरा
हक़ीम ने जो दीं, सब बेअसर दवाएँ हैं

सिखाये है वो हमें तौर कुछ मुहब्बत के
शजर के शाख से लिपटी ये जो लताएँ हैं

भटकती फिरती है पीढ़ी जुलूसों-नारों में
गुनाहगार हुईं शह्‍र की हवाएँ हैं

कराहती है ज़मीं उजली बारिशों के लिये
फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं

उठी थी हूक कोई, उठ के इक ग़ज़ल जो बनी
जुनूँ है कुछ मेरा तो उनकी कुछ अदाएँ





(अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2013)