भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उल्फ़त का फिर मन है बाबा / 'अना' क़ासमी

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:43, 7 सितम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उल्फ़त का फिर मन है बाबा
फिर से पागलपन है बाबा

सब के बस की बात नहीं है
जीना भी इक फ़न है बाबा

उससे जब से आंख लड़ी है
आँखों के धड़कन है बाबा

अपने अंतरमन में झाँको
सबमें इक दरपन है बाबा

हम दोनों की ज़ात अलग है
ये भी इक अड़चन है बाबा

पूरा भारत यूं लगता है
अपना घर-आँगन है बाबा

जग में तेरा-मेरा क्या है
उसका ही सब धन है बाबा