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उसका भरोसा क्या यारो वो शब्दों का व्यापारी है / हंसराज 'रहबर'

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उसका भरोसा क्या यारो वो शब्दों का व्यापारी है,
क्यों मुँह का मीठा वो न हो जब पेशा ही बटमारी है ।

रूप कोई भी भर लेता है पाँचों घी में रखने को,
तू इसको होशियारी कहता लोग कहें अय्यारी है ।

जनता को जो भीड़ बताते मँझधार में डबेंगे,
काग़ज़ की है नैया उनकी शोहरत भी अख़बारी है ।

सुनकर चुप हो जाने वाले बात की तह तक पहुँचे हैं,
कौवे को कौवा नहीं कहते यह उनकी लाचारी है ।

पेड़ के पत्ते गिनने वालो तुम 'रहबर' को क्या जानो,
कपड़ा-लत्ता जैसा भी हो बात तो उसकी भारी है ।

रचनाकाल : 11 अप्रैल 1976, सेंट्रल जेल, तिहाड़, दिल्ली