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उसी को आज यहाँ मिल रही सफलता है / उत्कर्ष अग्निहोत्री

उसी को आज यहाँ मिल रही सफलता है,
जो शख़्स रोज़ ही चेहरे नये बदलता है।

तेरे विशय में कहूँ तो भला कहूँ कैसे,
मैं जब भी देखूँ तो पहलू नया निकलता है।

जगत की पीर जो गाता हो अपने गीतों में,
उसी के कण्ठ से अमृत सदा निकलता है।

कुछ इस तरह से जीता रहा वो मन्दिर में,
कि जैसे मृत्तिका का कोई दीप जलता है।

सभी के सामने ये कह भी मैं नहीं सकता,
वो आईना भले है किन्तु सबको छकता है।

न उससे पूछिए उपचार के विशय में कभी,
वो सर्प है वो सदा ही गरल उगलता है।