भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उसे दिल से भुला देना ज़रूरी हो गया है / जलील आली

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:34, 6 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जलील आली }} {{KKCatGhazal}} <poem> उसे दिल से भुल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसे दिल से भुला देना ज़रूरी हो गया है
ये झगड़ा ही मिटा देना ज़रूरी हो गया है

लहू बर्फ़ाब कर देगी थकन यकसानियत की
सो कुछ फ़ित्ने जगा देना ज़रूरी हो गया है

गिरा दे घर की दीवारें न शोरीदा-सरी में
हवा को रास्ता देना ज़रूरी हो गया है

बहुत शब के हवा-ख़्वाहों को अब खलने लगा हैं
दीयों की लौ घटा देना ज़रूरी हो गया है

भरम जाए के जाए राह पर आए न आए
उसे सब कुछ बता देना ज़रूरी हो गया है

मैं कहाँ हूँ कि जाँ हाज़िर किए देता हूँ लेकिन
वो कहते हैं अना देना ज़रूरी हो गया है

ये सर शानों पे अब इक बोझ की सूरत है ‘आली’
सर-ए-मक़्तल सदा देना ज़रूरी हो गया है